पुजारी जी अउ समझाईस बेटा दाई के मालिक के दया तो पहिली ले हे, तभे तो ये मनखे जोनी पाये हन, अतेक सुग्घर संसार म आय हन।
अब ओखर संसार म आके, अपन घर-परिवार, अपन जिम्मेदारी ले भागना, बल्कि ओ मालिक के अपमान होथे, अउ फेर तें का समझथस।
नवरात्रि के परब चल राहय। चहुं ओर जगमगावत राहय माता के जोत ले घोर निरासा म अपार आसा भरइया, दुख-दरद ल दूर करइया, भूले- भटके ल रद्दा देखइया माता के जोत ले। लगय जइसे जम्मो चांद-सितारा, सरग आगे हें धरती म माता के सेवा म।
पिपरिया के सिध्दपीठ सतबहिनिया माई के दरबार के तो फेर बाते निराला। पूरा नौ दिन ले भण्डारा। कतको फकीर, फक्कड़, परे राहंय कई बछर ले, मइया के दरबार म जीनगी बितावत, माई के दरसन पावत गुन गावत, एक झन अधेड़ घलो, माता के सरन म आके, जीनगी के जंजाल ले मुक्ति पाये असन खुसी मनावय। नवा-नवा लागिस। पुजारी जी पूछिस- ‘बाबू! तोला मैं पहिली बेर देखत हंव, लगथे। कहां ले आए हस, कबके रहत हस?
बुधारू बताईस- ‘ददा मैं सोनहागांव के आंव। दू दिन होगे। घर-दुवार सब छोड़ के आए हंव महाराज। काबर? बुधारू अउ बताइस, पुजारी जी के पूछे म हलाकान होगे हंव ददा मैं जीनगी ले। खेत जावंव त बेटा काहय- ‘अक्कल नइहे, कुछु काम ल तो ढंग से करतिस। अउ नई जातेंव त बाई ठोलतिस कभू तो अंगेर के कमा लितिस, खाली खटिया म बइठे रहिथे। दूनों के ठोसना म गलगुचागे रहेंव। कभू-कभू तो कुछु करके मर जांव तइसे लगय, फेर जबरन मरई तो सबले बड़े पाप ये, सोंचके थम जात रहेंव। मरना ले तो कहूं जीना अच्छा हे सोंचके सब छोड़के भाग आयेंव। अब इंहे रहिके दाई के दरसन करत जीनगी काट हंव, माता के, अउ आपके दया होहि त…।’
‘देवी मां कस, दया-मया के मुरती बर अपन दाई-माई-बेटी, पूरा परिवार ल छोड़ दे हस, अउ कहिथस बाबू! दाई के दया होही त!’ पुजारी जी अउ समझाईस बेटा दाई के मालिक के दया तो पहिली ले हे, तभे तो ये मनखे जोनी पाये हन, अतेक सुग्घर संसार म आय हन। अब ओखर संसार म आके, अपन घर परिवार, अपन जिम्मेदारी ले भागना, बल्कि ओ मालिक के अपमान होथे, अऊ फेर तें का समझथस। कोनो मेर मुक्ति, खुसी परे होथे जेन। सहिं कहिबे त सुख-दुख मान-अपमान म जेन सम रहिथे, ओहि मुक्ति ये, ओहि खुशी ये। ये दुनिया सहिं कहिबे त बेटा! ओ मालिक के लीला, खेल आवय, अउ इंहा जेन हार-जीत, सुख-दुख ये, ओहि मुक्त, ओहि खुस अउ भगवान के सबले पियारा घलो। खुसी, मुक्ति तो अपन मन म होथे, घर म रह चाहे बन म। मोर हिसाब से, तोला घर लउट जाना चाही अउ अपन फरज पूरा करत जिनगी के मजा लेना चाही। आगू तोर मरजी, मालिक के रजा। पुजारी एकदम चुप होगे। बुधारू सन्न खाये सुनत रहय। आंखी खुलगे अउ बोहाये लगिस आंसू पश्चाताप के। पुजारी जी के चरन पकड़लिस रोवत, पछतावत। माता जी के किरपा होगे। ओखर जोत रद्दा देखा दिस भटके मन ल।’
तेजनाथ
बरदुली पिपरिया